दुआ कब क़बूल होती है ?
दुआ को इबादत ( उपासना ) का मग़ज ( मस्तिष्क ) कहा गया है।
हदीस शरीफ में नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इर्शाद फ़रमाया- " अल्लाह इससे ज्यादा किसी इन्सान से नाराज़ नहीं होता जो उससे दुआ करे और यह समझ कर छोड़ दे कि मेरी दुआ कबूल नहीं होगी।
" दुआओं की मकबूलियत
( दुआ कबूल होना ) के सिलसिले में हमें खुद अल्लाह तआला ने कुआन शरीफ़ में इस बात की ज़मानत दी है कि " मुझसे दुआ करो , मैं तुम्हारी दुआ कबूल करूंगा।
इसलिए दुआ की कबूलियत के लिए सिर्फ यही शर्त है।
कि इन्सान खा़कसारी के साथ इंकिसारी ( नम्रता ) का एतराफ़ ( इक़रार ) करके अच्छेलफ़्जों ( शब्दों ) के इस्तेमाल
( प्रयोग ) के साथ अल्लाह के सामने अपनी दिली तमन्नाओं का इज़हार ( प्रकट ) करे।
दुआ मांगने का सही तरीका़ यह है। कि पहले अल्लाह की तारीफ़ करके उसकी नेअमतों का शुक्र बजा लाए, फिर हुजूर सल्लाल्लाह अलैहि वसल्लम की ज़ाते मुबारक और उनकी आल ( परिवार ) पर दुरूद भेजे। और मग़फिरत का तालिब होकर अपनी हाजत और ज़रूरत बयान करे । दुआ करते वक़्त जिस्म ( शरीर ) और लिबास ( वस्त्र ) पाकीज़ा
( पवित्र ) हो और दुआ करने वाला हलाल रिज़क कमाता या खाता हो ।
दुआ मांगने के लिए वक्त की कोई कै़द नहीं।
रात और दिन में सभी पल और लम्हों में दुआ मांगी जा सकती है। तन्हाई ( एकान्त ) में और अल्लाह तआला के सामने नर्मी और खा़कसारी की जो बेतकल्लुफ़ाना
(बिना हिचकिचाहट का माहौल) फ़जा इन्सान
को मयस्सर ( उपलब्ध ) आती है , के वक्त , अज़ान के वक्त , जब बारिश हो रही हो , ऐसे वक्त में जब किसी वजह से दिल परीशान हो और रोना आ रहा हो , दुआ मांगी जाए तो कबूल होती है । अल्लाह तआला ने कुआन में इर्शाद फ़रमाया है- " मुझसे मांगो , मैं तुम्हारी दुआएं कबूल करूंगा । " और अल्लाह तआला कभी वादा खिलाफ़ी नहीं फ़रमाता।
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