"बद्र" नामक स्थान पर हुई थी। इस लड़ाई में मात्र तीन सौ तेरह मुसलमानों ने ग्यारह सौ दुश्मनों को पराजित कर दिया था।
दुश्मन सरदार अबू जल इस लड़ाई में मारा गया था।
उहुद की लड़ाई" दूसरी लड़ाई ‘ गज्व - ए - उहुद '
अर्थात् उहुद की लड़ाई कहलाती है। उहुद मदीना के उत्तर में दो मील दूर स्थित पहाड़ी का नाम है।
जहाँ यह जंग हुई। इसमें सात सौ मुसलमनों ने तीन हजा़र दुश्मनों का मुकाबला किया। इस लड़ाई में आप (ﷺ) के चचा हज़रत हमज़ा (रजि़) शहीद हो गए।
और प्यारे नबी (ﷺ) भी ज़ख्मी हुए، परन्तु दुश्मन मदीने पर हमला करने की हिम्मत नहीं कर सके और वापस चले गए।
"गुज्व - ए - खंदक" भी कहा जाता है। सुरक्षा के इस नए तरीके के कारण दुश्मन सेना बहुत दिनों तक डेरा डाले पड़ी रही लेकिन कामयाब नहीं हो सकी।
अन्ततः एक भीषण तूफान ने उनका खेमे उखाड़ फेंके और वे युद्ध - सामग्री छोड़ कर भाग खड़े हुए।
मुनाफ़िकों ( कपटचारियों ) की समस्या""
इस्लामी आंदोलन को जहाँ एक ओर इस्लाम के दुश्मन ताक़तों की और से
बार - बार हो रहे हमलों से लड़ना पड़ रहा था। वहीं दूसरी ओर इस्लाम का झूठा दावा कर के मुस्लिम समाज में घुस आए।"'मुनाफिकों"' की शरारतें एक बहुत बड़ी समस्या बनी हुई थी। वे मुसमलान बन कर और मुसलमानों के बीच रह कर उन्हें तरह - तरह से लड़ाने का प्रयास करते थे।, परन्तु मुहम्मद (ﷺ) बड़ी सूझ खूझ और हिकमत से इन "मुनाफिकों" के फितने से निबटते रहे और उन अन्दर के दुश्मनों से मुसलमानों को सुरक्षित रखा।
"सुलह हुदैबिया"अहज़ाब की लड़ाई के बाद प्यारे नबी (ﷺ) हज के इरादे से चौदह सौ मुसलमानों के साथ मक्का की और रवाना हुए। इसकी सूचना पा कर इस्लाम के विरोधियों ने उन्हें रोकने की योजना बनाई। मुहम्मद (ﷺ) ने हुदैबिया नामक स्थान पर पड़ाव डाल कर कुरैश के पास अपना दूत यह संदेश देकर भेजा कि वे लड़ने नहीं आए हैं। बल्कि हज करना चाहते हैं। परन्तु इस्लाम के दुश्मनों ने उस दूत के साथ दुर्व्यवहार किया। फिर हज़रत उस्मान (رضى الله تعالى عنه) को भेजा गया। अन्ततः इस्लाम के विरोधियों और मुसलमानों के बीच "सन् 6 हिजरी"( 628 ई 0 ) में '"सुलह हुदैबिया"' के नाम से एक समझौता हुआ। इसमें तय पाया कि मुसलमान इस वर्ष वापस चले जाएँ और अगले वर्ष हज के लिए आएँ। बज़ाहिर कुछ हानिकारक शर्तों के होते हुए भी दूरगामी परिणामों को दृष्टि में रखते हुए नबी (ﷺ) ने वे शर्ते मान ली और आप (ﷺ) मुसलमानों को लेकर मदीना वापस चले आए। इस समझौते के कारण मुसलमान और इस्लाम के विरोधियों के बीच आपसी मेल - जोल बढ़। फलतः मुसलमानों के सद्व्यवहार से प्रभावित हो कर बड़ी संख्या में लोग मुसलमान होने लगे।
इस्लाम स्वीकार करने वालों में ख़ालिद बिन वलीद (رضى الله تعالى عنه ) और हज़रत अम्र बिन आस ( رضى الله تعالى عنه) जैसे प्रसिद्ध सैनिक कमाण्डर भी थे। इसके अतिरिक्त आप (ﷺ) ने ईरान , रूम , मिस्र और हबशा के बादशाहों को भी इस्लाम का पैगाम भिजवाया जिसके अच्छे परिणाम सामने आए।
"खैबर की लड़ाई. " मदीना में बसे यहूदियों के साथ मुसलमानों का समझौता था। मुसलमान उनके साथ अच्छा व्यवहार करते थे।, किन्तु यहूदी हमेशा मुसलमानों के खिलाफ षड्यंत्र रचते रहे। उनके षड्यंत्र के परिणाम स्वरूप ही ' खंदक ' की लड़ाई हुई। उनसे तंग आ कर नबी (ﷺ) ने उन यहूदियों को मदीना से निकाल दिया। मदीना से निकल कर वे लोग खैबर नामक स्थान पर बस गए। वहाँ पहुंच कर भी वे चैन से नहीं बैठे और आस - पास के कबीलों को मुसलमानों के विरुद्ध युद्ध के लिए तैयार करना शुरू कर दिया। सूचना पा कर
नबी (ﷺ) ने खैबर पर कार्रवाई की और उसे इस्लामी राज्य में मिला लिया।
= मक्का विजय = सुलह हुदैबिया के दो साल बाद जब मक्का के लोगों ने मुसलमानों से किया समझौता तोड़ दिया। तो आप (ﷺ) ने दस हज़ार मुसलमानों को ले कर
सन् 8 हिज़री ( 628 ई 0 ) में मक्का में प्रवेश किया। मुसलमानों की इतनी बड़ी संख्या देख कर विरोधियों के होश उड़ गए। और उन्होंने बिना लड़े ही शहर मुसलमानों के हवाले कर दिया। इस्लाम के दुश्मन जिन्होंने आप पर और आप के साथियों पर जुल्म व सितम के पहाड़ ढाए और जिनके कारण आप को अपना वतन छोड़ना पड़ा, वे सभी विजेता के सामने डरे - सहमे खड़े हो कर अपनी जान की खैर मना रहे थे,
किन्तु आप (ﷺ) का ही दिल था कि उनसे कहाः “ आज तुम्हारी कोई पकड़ नहीं, जाओ, तुम सब आज़ाद हो।" मानवता का पूरा इतिहास दया - क्षमा के ऐसे उदाहरण से खाली दिखाई देता है। नबी (ﷺ) के इस सद्व्यवहार और इस्लाम की शिक्षाओं से प्रभावित हो कर लोग गिरोह के गिरोह ईश्वरीय धर्म ' इस्लाम ' को ग्रहण करने लगे। इस्लाम मे आने लग।
""आख्रिरी हज"" सन् दस हिजरी में प्यारे नबी (ﷺ) ने हज का इरादा किया। आप के साथ एक लाख से अधिक मुसलमानों ने हज किया। इस अवसर पर आप (ﷺ) ने एक खुतवा दिया।
"खुत्व - ए - हज्जतुल विदा" यआनि, आख़िरी हज की तक़रीर के नाम से प्रसिद्ध है। प्यारे नबी (ﷺ) ने फ़रमायाः मैं ऐलान करता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई उपास्य नहीं। वह अकेला है , उसका कोई साझी नहीं और मैं ऐलान करता हूँ कि मुहम्मद उसका बन्दा और उसका पैगम्बर है।" मैं तुम्हारे बीच दो ऐसी चीजें छोड़ जा रहा हूँ कि जब तक उस पर चलते रहोगे कभी सत्य - मार्ग से न हटोगे , वह है अल्लाह की किताब
(कुरआन) और "मेरी सुन्नत" यआनि मेरा तरीका़।
“ आपने अज्ञानता के समय के समस्त विधान और तौर - तरीके ख़त्म कर दिए । ईश्वर एक है।
और समस्त मानव आदम ( अलैहिस सलाम ) की संतान हैं। और वे सब बराबर हैं। किसी अरबी को गैर - अरबी पर और गैर - अरबी को अरबी पर , काले को गोरे पर और गोरे को काले पर कोई श्रेष्ठता नहीं यदि किसी को श्रेष्ठता प्राप्त है तो भले कर्मों के कारण । " अन्त में आप ने एकत्र लोगों को सम्बोधित कर के कहा : " तुम से खुदा के यहाँ मेरे बारे में पूछा जाएगा तो क्या जवाब दोंगे ? " मुसलमानों ने एक आवाज़ में कहाः “ हम कहेंगे कि आप (ﷺ) ने खुदा का सन्देश हम तक पहुंचा दिया और अपना कर्तव्य पूरा किया।
"नबी (ﷺ) ने आसमान की ओर उंगली उठा कर तीन बार कहाः " ऐ खुदा गवाह रहना , ऐ खुदा गवाह रहना , ऐ अल्लाह गवाह रहना। " इंतिकालः- यही अरब जहाँ सब आप की जान के दुश्मन थे , एक दूसरे के खून के प्यासे थे , चारों ओर अशान्ति , लूट - मार , लड़ाई - झगड़ा व्याप्त था, अनगिनत बुतों की पूजा की जाती थीं , वही अरब आप (ﷺ) के मात्र 23 वर्ष के प्रयास के बाद आप के आदेश पर जान कुरबान करने को तैयार था । चारों ओर सुख - शांति का वातावरण था और एकेश्वरवाद का बोल बाला था। आख़िरी हज के बाद नबी (ﷺ) मदीना बापस आ गए और लगभग तीन महीने बाद 63 वर्ष की आयु में 12 रबीउल - अव्वल , 11 हिजरी , तदानुसार 11 जून 632 ई 0 को आप का विसाल हुआ। अंतिम समय में आप ने मिस्वाक ( दातून ) की और बोलेः....
“ नमाज - नमाज़ - नमाज़ और लौंडी और गुलाम के अधिकार। " इसके बाद आप की मुबारक ज़बान से अंतिम शब्द के रूप में निकला। "अल्लाहुम - म बिर्रफ़ीकिल ' आला " यानी ऐ अल्लाह! सब से बड़े साथी ( यानी अल्लाह ) से मिलने की सिर्फ तमन्ना है। ऐ अल्लाह! तू रहमतों की बारिश कर हज़रत मुहम्मद (ﷺ) पर और हज़रत मुहम्मद की आल पर और बरकतों और मेहरबानियों से नवाज़।
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