हज़रत मालिक बिन दीनार रहमत - उल्लाह अलेह एक मर्तबा बसरा के बाज़ार से गुज़र रहे थे, आपने एक लोंडी को देखकर उसके मालिक से उसकी कीमत पूछी। वो कहने लगा। आप दुरवैश आदमी हैं। आप उसकी कीमत ना दे सकेंगे। हज़रत मालिक बिन दीनार ने फ़रमाया ये बेचारी क्या माल है मैंने बड़ी बड़ी लोंडियों का बीअनामा दे रखा है। इस लोंडी की कीमत तो मेरे नज़दीक कुछ भी नहीं। अगर है तो खजूर की दो गुठलियाँ हैं और वो इसलिए के उस लोंडी में बहुत ऐब हैं। दो दिन इत्र ना लगाए तो बदन और कपड़ों से बदबू आने लगे। मिसवाक ना करे तो गंदा दहन हो जाए। कंघी चोटी से गाफिल रहे तो सर में जूएँ पड़ जायें। ज्यादा उम्र वाली होकर बुढ़िया कहलाने लगे।
किसी महीने में है और किसी वक्त निजात से खाली नहीं। भाई जान ! मैंने उन लोंडियों का बोअनामा दे रखा है जो में काफूर व मुश्क और सरासर नूर से पैदा हुई हैं। जिनका लुआब दहन दरयाऐ शौर को मीठा कर दे, जिनका तबस्सुम मुर्दा को जिंदा कर दे , जिनका चेहरा चश्मे आफताब को गदला,
और जिनका हल्ला जान को मोअत्तर कर दे और जिनकी सिफ्त हूरून मक्सूरातुन फिल खिय्यमी है । उस शख्स ने पूछा के ऐसी हसीन व जमील लोंडियों की क्या क़ीमत है। हज़रत मालिक ने फरमाया। तर्क ख़्वाहिशाते नफ़्सानी और रात को दो रकातें पढ़ लेना। उस शख्स ने अपने तमाम गुलाम और लौंडियों को आजाद कर दिया और खुदा की राह में सब कुछ लुटाकर गोशा नशीन हो गया।
चिड़िया और अंधा सांप,,,,
""" डाकूओं का एक गिरोह डाका जनी के लिए एक ऐसे मुकाम पहुँचा जहाँ खजूर के तीन दरख़्त थे। इन दरख़्तों में से एक दरख़्त खुश्क था। और दो फल दार थे। डाकू वहाँ आराम के लिए लेटे तो डाकूओं के सरदार ने देखा के एक चिड़िया फल दार दरख़्त से उड़कर खुश्क खजूर पर जा बैठी है और थोड़ी देर के बाद फिर वहाँ से उड़ती है और फल दार दरख़्त पर जा बैठती है। और वहां से उड़कर फिर उसी खुश्क दरख़्त पर आ बैठती है। इसी तरह उसने कई चक्कर लगाए। सरदार ने ये देखा तो तजस्सुस के लिए खुश्क दरख़्त पर चढ़ा। और जाकर देखा के एक अंधा सांप सब से बुलंद टहनी पर लेटा बैठा है। और मुंह खोले हुए है। वो चुड़िया उसके लिए कुछ लाती है और उसके मुंह में डाल देती है। सरदार ने ये देखा तो मुतास्सिर हुआ और वहीं कहने लगा । इलाही ! ये एक मूज़ी जानवर है जिसके रिज्क के लिए तूने एक चुड़िया मुर्कार फरमा रखी है । फिर मेरे लिए जो अशरफ - उल - मखलूकात में से हूँ। ये डाका ज़नी कब मुनासिब है ? ये कहा, तो उसने हातिफ की ये आवाज़ सुनी के : " मेरी रहमत का दरवाज़ा हर वक्त खुला है , अब भी तौबा कर लो तो मैं क़बूल कर लूंगा।
""""" सरदार ने ये आवाज़ सुनी तो रोने लगा । और नीचे उतरकर उसने अपनी तलवार तोड़ डाली और चिल्लाने लगा के मैं अपने गुनाहों से बाज़ आया, बाज़ आया, इलाही! मेरी तौबा क़बूल कर ले। आवाज़ आई। " हम ने तुम्हारी तौबा क़बूल कर ली। " सरदार के साथियों ने ये माजरा देखा तो दरयाफ्त किया, के बात क्या है ? सरदार ने सारा किस्सा सुनाया। तो वो सब भी रोने लगे और कहने लगे के हम अपने अल्लाह से मुसालेहत करते हैं । चुनाँचे उन्होंने भी सच्चे दिल से तौबा की। और बइरादा - ए - हज सारे मक्का मुकर्रमा को चल पड़े। तीन दिन की मुसाफत के बाद एक गाँव में पहुँचे । तो वहाँ एक नाबीना बुढ़िया देखी। जो इस सरदार का नाम लेकर पूछने लगी के इस जमात में वो भी है। सरदार आगे बढ़ा और कहने लगा के हाँ ऐ ज़ईफा है। और वो मैं हूँ । कहो क्या बात है ? बुढ़िया उठी। और अन्दर से कपड़े निकाल लाई और कहने लगी। चन्द रोज़ हुए मेरा नेक फरजंद इन्तिकाल कर गया है। ये उसके कपड़े हैं। मुझे तीन रात मुतावातिर
" हुजूर सल- लल्लाहो तआलास अलेह व सल्लम" ख़्वाब में तशरीफ लाकर तुम्हारा नाम लेकर इर्शाद फ़रमाया है। के वो आ रहा है ये कपड़े उसे देना। लिहाजा ऐ मर्द खुश नसीब! ये अपनी अमानत लो।
सरदार ये सुनकर आलमे वन्द में आ गया। और वो कपड़े पहन कर मक्का मोअज्ज़मा हाज़िर हुआ और फिर अल्लाह के मक़बूलों में शुमार होने लगा।
शेर पर हकूमत,,,,,
हज़रत सफयान सूरी रहमत - उल्लाह अलेह फरमाते हैं। के एक बार मैं और हज़रत सफयान दोनों हज के लिए जा रहे थे के रास्ते में एक जंगल में शेर बैठा हुआ नज़र आया। मैंने शीबान से कहा। के आपने देखा।
वो रास्ते में शेर बैठा हुआ है ? शीबान बोले! परवाह नहीं। चुनाँचे हम आगे बढ़े। तो हज़रत शीबान ने शेर के पास जाकर उसके कान पकड़ लिए। और फरमाया, हमारा रास्ता छोड़ दो शेर उठा और कुत्ते की मानिंद अपनी दुम हिलाने लगा और हुक्म पाकर वहाँ से जाने लगा । मैंने कहा । शीबान तुम ने कमाल कर दिया। वो बोले ऐ सफयान! अगर शौहरत का डर ना हो तो बखुदा मैं अपना सामान इसकी पीठ पर लाद कर उसे मक्का मोअज्जमा तक ले चलूं।
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