M Jamali by السلام علیکم✍️welcome✍️ आला हज़रत का तज़किरा.chapter(01)

आला हज़रत का तज़किरा.chapter(01)

                    


                         हैरत अंगेज़ बचपन                                      

उमूमन हर ज़माने के बच्चों का वोही हाल होता है जो आज कल बच्चों का है कि सात आठ साल तक तो उन्हें किसी बात का होश नहीं होता और न ही वोह किसी बात की तह तक पहुंच सकते हैं , मगर आला ! हज़रत  का बचपन बड़ी अहम्मिय्यत का हामिल था । । कमसिनी , खुर्द - साली           ( यानी बचपन ) और कम उम्री में होश मन्दी और
कुव्वते हाफ़िज़ा का येह आलम था कि साढ़े चार साल की नन्ही सी उम्र में कुरआने मजीद नाज़िरा मुकम्मल पढ़ने की    नेमत से बारयाब हो गए । छ साल के थे कि रबीउल अव्वल के मुबारक महीने में मिम्बर पर ! जल्वा अफ़रोज़ हो कर मीलादुन्नबी  के मौजूअ पर एक बहत बडे़ इज्तिमाअ में निहायत पर मज तकरीर फरमा कर उलमाए किराम और मशाइखे इज़ाम से तहसीन व आफ्रीन की दाद वुसूल की । इसी उम्र में आप ने बग़दाद शरीफ़ के बारे में सम्त मालूम कर ली फिर ! ता दमे हयात बल्दए मुबारक ए गौसे आज़म           ( या ' नी ! गौसे आज़म के मुबारक शहर )   की तरफ़ पाउं न   फैलाए । नमाज़ से तो इश्क की हद तक लगाव था।       चुनान्चे नमाजे पन्जगाना बा जमाअत तक्बीरे । ऊला का तहफ्फुज़ करते हुए मस्जिद में जा कर अदा फ़रमाया करते , जब कभी किसी ख़ातून का सामना होता तो फ़ौरन नज़रें नीची करते हुए सर झुका लिया करते , गोया कि सुन्नते मुस्तफा  का आप पर गलबा था जिस का इज़हार करते हुए हुजूरे पुरनूर की खिदमते आलिया में यूं सलाम पेश करते हैं 
बचपन की एक हिकायत जनाबे सय्यिद अय्यूब अली शाह साहिब फ़रमाते ! हैं कि बचपन में आप को घर पर एक मौलवी साहिब कुरआने मजीद पढ़ाने आया करते थे । एक रोज़ का जिक्र है कि मौलवी साहिब किसी आयते करीमा में बार बार एक लफ्ज़ आप  को बताते थे मगर आप की ज़बाने मुबारक से नहीं निकलता था वोह " ज़बर " बताते थे आप " जे़र " पढ़ते थे येह कैफ़िय्यत जब आप के दादाजान हज़रते मौलाना रज़ा अली ख़ान साहिब ने देखी तो हुजूर ( यानी आला हज़रत ) को अपने पास बुलाया और कलामे पाक मंगवा कर देखा तो उस में कातिब ने गलती से ज़ेर की जगह ज़बर लिख दिया था। यानी जो आला हज़रत की ज़बान से निकलता था वोह सहीह था । आप  के दादा ने पूछा कि बेटे जिस तरह मौलवी साहिब पढ़ाते . थे तुम उसी तरह क्यूं नहीं पढ़ते थे ? अर्ज की : मैं इरादा करता था मगर ज़बान पर काबू न पाता था।                                                                                              आला हज़रत खुद फ़रमाते थे कि मेरे उस्ताद ! जिन से मैं इब्तिदाई किताब पढ़ता था , जब मुझे सबक़ पढ़ा दिया । करते एक दो मर्तबा मैं देख कर किताब बन्द कर देता , जब सबका सुनते तो हर्फ ब हर्फ लफ़्ज़ ब लफ़्ज़ सुना देता । रोज़ाना येह हालत देख कर सख्त तअज्जुब करते । एक दिन मुझ से फ़रमाने लगे कि । अहमद मियां ! येह तो कहो तुम आदमी हो या जिन्न ? कि मुझ को । पढ़ाते देर लगती है मगर तुम को याद करते देर नहीं लगती ! आप ने फ़रमाया कि अल्लाह का शुक्र है मैं इन्सान ही हूं हां अल्लाह का फ़ज़्लो करम शामिले हाल है 

( हयाते आ ' ला हज़रत , जि . 1 , स . 68 )                

अल्लाह की उन पर रहमत हो और उन के सदके हमारी बे हिसाब मरिफ़रत हो 

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